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वास्तु विश्लेषण भोजपुर शिव मंदिर भोपाल मध्यप्रदेश

भोजपुर मन्दिर मध्यप्रदेश के राजधानी भोपाल से लगभग 30 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में बेतवा नदी के पूर्व की ओर स्थित है। इस प्राचीन शिव मंदिर को “शिव-मंदिर भोजपुर” के नाम से जाना जाता है। इस प्राचीन अनूठे परंतु अपूर्ण मंदिर का निर्माण धार के राजा भोज द्वारा किया गया था । राजा भोज भारतीय स्थापत्य कला अर्थात शिल्प वास्तु शास्त्र के महान सरंक्षक एवं ज्ञाता थे राजा भोज के द्वारा एक बहुत ही प्रसिद्ध वास्तु के प्रामाणिक ग्रंथ की रचना की गई थी जिसका नाम “समरांगण-सूत्रधार” है।

यह एक भव्य शिव मंदिर है जिसकी ऊँचाई मय जलाधारी तकरीबन 22 फुट है जिसमे लिंग की ऊँचाई 2.03 मीटर अर्थात लगभग साढ़े छः फ़ीट है ।इस मंदिर में कई सारे वास्तु दोष हैं जिसके चलते दुर्गति और संघर्ष का शिकार हुआ आइए जानते हैं वास्तु अनुसार मंदिर की भौगोलिक स्थिति के बारे में ।

   यह प्राचीन शिव मंदिर बेतवा नदी के पूर्व में स्थित एक ऊंची चट्टान पर बना हुआ है मंदिर में प्रवेश करने के लिए लोहे का एक द्वार दक्षिण में स्थित है जो वास्तु शास्त्र के अनुसार पैशाच वीथी के लगभग पित्र ,मृग पदों पर बना हुआ है(यह व्यस्था मंदिर प्रांगण के अनुसार है जो अधिग्रहित क्षेत्र अर्थात प्रोटेक्टेड क्षेत्रफल के अंदर का ही  हिस्सा है) वास्तु शास्त्र के अनुसार ऐसी स्थिति अत्यधिक मात्रा में संघर्ष और दुर्गति देती है साथ ही आर्थिक रूप से भी असम्पन्न बनाती है मंदिर में गर्भ स्थल का प्रवेश पश्चिम दिशा से है जहाँ द्वार नही है अर्थात खुला हुआ है एवं क्रमशः उत्तर, पूर्व एवं दक्षिण में दीवारें एवं बड़े पिल्लर हैं जो कई जगहों से टूटे एवम खंडित हैं. मंदिर के ठीक बाहर में पूर्व -उत्तर ईशान की ओर एक काफी बड़ा एवं भारी पत्थर-मिट्टी का टीला है जो प्रोटेक्टेड क्षेत्रफल के लगभग ईशान भाग पर बनता है जो वास्तु शास्त्र के बड़े दोषों की श्रेणी में आता है और किसी भी वास्तु की आर्थिक स्थिति और प्रसिद्धि से संबंधित होता है.इस मंदिर प्रांगण के अग्नि कोण (प्रोटेक्टेड एरिया ) के कुछ पद  कटे हुए हैं इन पदों द्वारा रचनात्मकता (CREATIVITY),नए सृजनात्मक विचारों और नई योजनाओं के क्रियांवयन का विचार किया जाता है वो पद ही नही हैं तो सृजनात्मकता ऐसी वास्तु में  कहाँ दिखेगी...

प्रोटेक्टेड क्षेत्रफल का मध्य दक्षिण अर्थात यम का पद भी कटा हुआ है दक्षिण दिशा का प्रतिनिधित्व मंगल द्वारा किया जाता है और शास्त्रों में मंगल को सेनापति की पदवी प्राप्त है...ऐसा राजा और सैनिक जिनका सेनापति ही ना हो तो राज्य तो दिशाहीन की होगा.वहीं सम्पूर्ण प्रोटेक्टेड क्षेत्रफल का दक्षिण पश्चिम नैरत्य भी बड़ा हुआ है अर्थात संघर्ष, दुर्गति, किसी भी काम मे पूर्णता के ना होने को दर्शाता है..अब सम्पूर्ण प्रोटेक्टेड क्षेत्रफल के पश्चिम दिशा को देखें तो पाते हैं कि बेतवा नदी सम्पूर्ण पश्चिम दिशा को कवर किये हुए है अर्थात जल तत्व है..पश्चिम दिशा में वरुण पद में जल शुभ माना गया है परन्तु उत्तर-पश्चिम वायुवीय के पश्चिम और दक्षिण - पश्चिम नैरत्य के पश्चिम में जल तत्व का होना अशुभ है इस दोष के चलते आर्थिक असम्पन्नता, रोग, संघर्ष एवं एकलता आती है तो यहाँ देखा जा सकता है. कि यहाँ विशेष त्योहार जैसे महाशिवरात्रि, श्रावण मास आदि के अलावा भीड़ कम ही देखने को मिलती है (जिस अनुसार मंदिर प्राचीनतम है) और शाम तक होते-होते वीरान सा हो जाता है इसे ही एकलता का वास होना कहा जाताहै...अब प्लव दोष की बात की जाए तो तीन प्रकार के प्लव दोष भी यहाँ हैं पहला पूर्व से पश्चिम (अर्थात पूर्व ऊंचा और पश्चिम नीचा) इसे जल वीथी प्लव दोष कहा जाता है जो दरिद्रता देता है..दूसरा उत्तर से दक्षिण के प्लव जिसे यम वीथी प्लव दोष कहते हैं जो जीवन हानि करता है और तीसरा पूर्व-उत्तर ईशान से दक्षिण-पश्चिम नैरत्य का प्लव जिसे भूत वीथी कहते हैं यह भी दरिद्रता और निःसंतानता लाता है(उक्त प्लव दोष का विवरण मनुष्यालय चंद्रिका ग्रंथ के श्लोक क्रमांक 19 में मिलता है) मौजूद हैं..

   उपरोक्त समस्त वास्तु दोषों के चलते आज तक कई सदियां बीत गयी पर मंदिर अपूर्ण है खंडहर स्वरूप है दीवार पर बनी मूर्तियाँ और स्तंभ खंडित हैं साथ ही भव्यता , सुंदरता, प्रसिद्धि में प्राचीनतम होते हुए भी तुलनात्मक रूप से कमी है यदि इस मंदिर का  जीर्णोधार कार्य करवाते समय उक्त दोषों पर विचार कर दोष निवारण कर दिया जाय तो इस बात में तनिक भी संदेह नही है कि इस मंदिर की भव्यता, प्रसिद्धि, ख्याति, सुंदरता और आकर्षण देखते सुनते ही बनेगी...

(नोट:उक्त शोध वर्ष 2019 की स्थिति के आधार पर है यदि समय अनुसार युक्त स्थिति मे कोई परिवर्तन किया गया है तो दिया गए फलादेश मे परिवर्तन संभव है !)

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